वर्तमान में व्याधिप्रतिरोधक क्षमता (Immunity) को बढाने का प्रयास हर कोई कर रहा है। आयुर्वेदीय दृष्टिकोण से इम्युनिटी बढ़ाने पर विचार करें, तो आहार (Diet), निद्रा (Sleep) एवं ब्रह्मचर्य (Lifestyle) तीनो का सम्यक प्रयोग ही इम्युनिटी बढ़ाने वाला है। इसमें भी आहार अर्थात भोजन (Diet) को विशेष रूप से लाभकारी होने से प्रथम स्थान पर रखा गया है।
असम्यक आहार लेने से शरीर पर पडने वाले प्रभावों को कुपोषण कह सकते है। सम्यक रूप से आहार लेने का अर्थ-मात्रापुर्वक आहार, शरीर में सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति करने वाला आहार एवं समय पर आहार लेने से है। एलोपैथिक चिकित्सकोने आहार के सम्यक होने के उपरोक्त तीन हेतुओं को तो आयुर्वेद से ग्रहण करके संतुलित आहार के नाम से प्रचारित किया, किन्तु भारतीय ऋतुओं के अनुसार भोजन व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया। एलोपैथिक चिकित्सका के विद्वानो ने यह विचार ही नहीं किया कि किस ऋतु में हमारे शरीर का बल बढ़ा रहता है और किस ऋतु में स्वभावतः घटा रहता है और न ही कभी इस बात पर ध्यान दिया कि किस मौसम में हमारी भूख तेज रहती है और किस मौसम में कम! जिसके अनुसार अपने भोजन में परिवर्तन किया जाये।
ऋतु अनुसार भोजन का विचार हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के आचार्यो ने बहुत ही विस्तृत रूप में किया हैं और उन्होंने प्रत्येक बात के पीछे कारण बताया है । जैसे तिल, उड़द, नया धान तथा गेहूँ यह सभी गुरु होते हैं और देर से पचते है। इसलिये इनको सर्दी के मोसम में खाना चाहियें। यदि गलती से गर्मी व बरसात में खाएं जाये तो व्यक्ति अस्वस्थ हो़ सकता है । इसी प्रकार सुखे मेवें भी बरसात व गर्मी में खाने से रोग उत्पन्न करते हैं। हमारे त्यौहार भी ऋतु अनुसार आहार की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए रखे गए है, जैसे जाड़े में खिचड़ी का त्यौहार, यह इस बात की सूचना देते हैं कि इस मौसम में नए चावल व उड़द की खिचड़ी घी व अदरक डालकर खानी चाहिए। इसी तरह मकरसंक्रान्ती और लोहरी का त्यौहार खाने की आदतो को बदलने की सूचना देता है। शरद ऋतु के आरम्भ में अनन्त चौदस का त्यौहार सेवई आदि मीठी चीजें खाने की याद दिलाता है। शरद पुर्णिमा की रात को चंद्रमा की शीतल किरणों में खुले में रखी ठंडी खीर का सेवन। यह तो केवल कुछ उदाहरण मात्र है, जो जन मानस में प्रचलित है। आयुर्वेद के शास्त्रों में प्रत्येक ऋतु में और ऋतु परिवर्तन के समय क्या क्या परिवर्तन भोजन में करना चाहिये, इसका विस्तृत वर्णन है।
आयुर्वेद के आचार्यों ने जठराग्नि को महत्व देते हुए प्रत्येक ऋतु के अनुसार पथ्य-अपथ्य आहार-विहार का निर्देष किया है, ताकि कुपोषण तथा कुपोषण से होने वाली व्याधियों से बचा जा सके और जठराग्नि को सम रख कर हम स्वस्थ बनाएं रखे।
ऋतु के अनुसार पथ्य व्यवस्था इस प्रकार है –
हेमन्त ऋतु में पथ्य आहार:
इस ऋतु में विशेष रूप से अग्नि की प्रबलता रहती है, अतः इस ऋतु मे भूखे नही रहना चाहिये।
– इस ऋतु में स्निग्ध, मधुर, गुरु व लवणयुक्त भोजन लेना चाहिए ।
– घृत, तैल, ईख और उश्ण भोजन करें ।
– विविध प्रकार के पौष्टिक पाक, मोदक, मोगर के लड्डू, गोंद के लड्डू, अश्वगंधा पाक्, मेथी के लड्डू, ब्रह्म रसायन, च्यवनप्राष का सेवन हितकर होता है
– नए शाली चावल एवं मास का सेवन हितकर है ।
– सुखे मेवें व इनसे बने पाक आदि का प्रयोग करना चाहिये
– बलवर्धीय रस रसायनों का प्रयोग।
– अमरूद, बैंगन, धनियाँ, टमाटर, गोभी, मेथी खूब खाना चाहिए।
– मधुर, अम्ल, लवण रसों का सेवन हितकर है ।
षिषिर ऋतु में पथ्य आहार:
इस समय शीतलता एवं रूक्षता का मिला-जुला वातावरण रहता है।
– हरीतकी एवं पिप्पली का समान मात्रा में प्रयोग करना चाहिए ।
– गुरु एवं स्निग्ध पदार्थों का सेवन, विविध पाक व हेमन्त ऋतु में बताऐ गए आहार का सेवन कर सकते हैं।
– सूरणकन्द की शाक व मेदे के बने हुए आहार का प्रयोग करना चाहिए।
– अदरक व लहसून की चटनी का प्रयोग करना चाहिए।
– लोहासव, अश्वगंधारिष्ट, द्राक्षासव का प्रयोग करना चाहिए
– दूध का सेवन विशेष रूप से करना चाहिए ।
– पपीता का भी प्रयोग करें ।
बसन्त ऋतु में पथ्य आहार:
बसन्त ऋतु में कफ प्रकुपित होकर अग्नि मंद कर देता है ।
– एक वर्ष पुराना जौ, गेहूँ चावल का उपयोग करें ।
– इस ऋतु में ज्वार, बाजरा, मक्का आदि रूक्ष धानों का आहार श्रेष्ठ रहता है।
– मूंग, मसूर, अरहर, चने की दालें उपयोगी हैं ।
– मूली, घीया, गाजर, बथुआ, चौलाई, परवल, सरसों, मैंथी, पत्तापालक, धनिया, अदरक आदि का सेवन हितकर है ।
– करैला, सहिजन उत्तम कफ नाशक है ।
ग्रीष्म ऋतु में पथ्य आहार:
इस ऋतु में विशेष रूप से रुक्षता एवं दुर्बलता अर्थात अल्प बल की अवस्था होती है।
– इस ऋतु में शीत, स्निग्ध, मधुर एवं लघु आहार तथा साठी चावल, जौ, मूंग, मसूर आदि का सेवन करना चाहिए ।
– दूध, पेय, पानक, दही की लस्सी, फलों का रस, सŸाु, छाछ आदि का प्रयोग हितकर है ।
– नारंगी, अनार, नींबू व गन्ने का रस, खरबूजा, तरबूज, शहतूत आदि रसदार फलों का सेवन करना चाहिए।
– नारियल का पानी, जलजीरें का प्रयोग हितकर है।
– प्याज, कच्ची कैरी का प्रयोग करना चाहिए। हरे धनिया, पुदिने की स्वदिष्ट चटनियों का प्रयोग कर सकते है।
– मीठे फल – मुनक्का, छुहारा अंजीर आदि ।
वर्षा ऋतु में पथ्य आहार:
– अम्ल, लवण स्नेहयुक्त भोजन हितकर है।
– खुले में रखा एवं बासी भोजन ना करे।
– पुराने धान्य, रसो का सेवन हितकर है ।
– घी व दूध का प्रयोग भोजन के साथ करें ।
– छाछ में बनाई गई बाजरा अथवा मक्का की राबड़ी का सेवन हितकर है ।
– परवल, जौ, लौकी, मूंग की दाल, नींबू का प्रयोग हितकर है ।
– हरे पत्ते वाले शाक नहीं खाऐं एवं खीरा, ककड़ी जैसे सलाद न खाऐं मजबुरी में लेना पडे तो सेंधव मिला कर थोडी मात्रा मे ले।
– नदियो के जल को नही पिये ( उबालने के बाद छान कर ले सकते है ) और संशोधित जल जैसे कुऐं, बावड़ी अथवा अन्तरिक्ष जल का ही प्रयोग हितकर है।
– सभी खाने की चीजों में मधु अवश्य मिला दें ।
निष्कर्ष:
भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार का विचार करने पर यह जरूरी हो जाता है कि हमारा भोजन प्रत्येक ऋतु में ऐसा होना चाहिए कि वो दोषो को प्रकुपित न करे ।
आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार का विचार करने पर यह जरूरी हो जाता है कि हमारा भोजन प्रत्येक ऋतु में ऐसा होना चािहए कि तीनों दोष इस अवस्था में रहें कि रोग न पैदा कर सकें । जिस मौसम में जो दोष बिगड़ते हो, उसको शंात करने वाला भोजन होना चाहिए परंतु वह ऐसा न हो कि वह दूसरे दोष को बिगाड़ दें ।
इस प्रकार हम देखते है कि यदि ऋतु के अनुसार पथ्य व्यवस्था का पालन किया जाये तो मनुष्य रोग रहित रहता है और हमारे आज के इस समाज की आधुनिकता व अव्यवस्थाओं को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि कुपोषण व अन्य व्याधियों से यदि हम छुटकारा पाना चाहते है तो हमें आयुर्वेद में वर्णित पथ्य-अपथ्य व्यवस्था का ही पालन करना पडे़गा।