आधुनिक काल में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं होगा जहां महिलाओं ने अपना स्थान न बनाया हो। महिलाएं नौकरी करने के साथ साथ अपने परिवार को भी अच्छे से संभालती हैं। नारी तो घर परिवार की करोडरज्जू समान होती हैं। व्यवसाय के स्थल एवं परिवार में रोजबरोज कई सारी समस्या बिन बुलाये महेमान की तरह आती रहती हैं। व्यवसाय में भी आजकल जोरदार प्रतियोगिता का दौर चल रहा है जिसके चलते व्यवसाय में टिके रहने के लिए हमेशा जागरूक रहना पडता है और कई सारी समस्याओ का सामना करना पडता है। दूसरी ओर अब संयुक्त परिवार में रहना भी कम हो गया है तो घर परिवार की जिम्मेदारी का बोझ भी महिला पर बढ़ गया है।
महिलाएं भी कोई मशीन तो नहीं हैं। वो यह दोहरी भूमिका निभाने में शारीरिक एवं मानसिक रूप से थक जाती है।
शारीरिक तकलीफें जैसे थकान, कमरदर्द, सिरदर्द, दौर्बल्य, माहवारी संबंधित समस्या, हीमोग्लोबीन की कमी, केल्शियम की कमी, जोड़ों मे दर्द, कब्ज, पाचन ठीक न होना आदि देखने को मिलती हैं। मानसिक तकलीफ में नींद न आना, गुस्सा आना, चिंता, डीप्रेशन, अकारण भय का बना रहना, याददाश्त कमजोर होना इत्यादि परेशान करते हैं। इस तरह की दोहरी भूमिका को निभाने में अपने स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए अच्छे से ध्यान नही दे पाती हैं। परंतु यह बिल्कुल उचित नहीं है क्योंकि अगर वो खुद ठीक नहीं रहेगी तो पूरे परिवार पर उसका असर पडता है। इसलिए खुद के लिए और अपने बच्चे एवं पूरे परिवार के लिए अपने शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए थोडा समय देना अत्यंत आवश्यक है।
इस परिस्थिति में आयुर्वेद मे बताए गए सरल और नियमित उपयोगी ऐसे नियमों को अपने रोजबरोज के जीवन में स्थान देने से चमत्कारी परिणाम पा सकेंगे। आयुर्वेद का प्रयोजन देखां तो पहले स्वस्थ व्यक्ति को अपने स्वास्थय की रक्षा करनी होती है और अगर रोग हो जाए तो रोग की चिकित्सा करानी है। आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति उसे कहते हैं जिसके तीनों दोष, अग्नि, धातु, मल प्राकृत अवस्था में हों एवं उसके साथ साथ आत्मा, इंद्रिय और मन भी प्रसन्न होने चाहिए। अर्थात शरीर के साथ मन भी दुरस्त होना चाहिए। शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिये आयुर्वेद में बहुत सुंदर नियमों को बताया गया हैं जिसका पालन करने पर हम शरीर के साथ साथ मन को निरंतर स्वस्थ रख सकते हैं और एक सुंदर जीवन जी सकते हैं। कहा भी गया है कि व्यक्ति को पहले अपने शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि शरीर के स्वस्थ न रहने पर सब व्यर्थ होता है। आयुर्वेद मे दिन, रात एवं हर एक ऋतु में स्वस्थ कैसे रह सकते हैं उसका वर्णन मिलता है। आगे कहे गये आयुर्वेद के नियमों को अपनाकर हम अपने शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रख सकते हैं एवं रोगों को उत्पन्न होने से रोककर एक खुशहाल जीवन जी सकते हैं।
महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा है कि गृहिणी के बिना घर अरण्य जैसा होता है। मां का महत्व पिता से हजारगुना अधिक बताया है एवं मां को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कहा है। अब तो हर एक क्षेत्र मे महिला महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। महिलाओं को अपने खुद के जीवन में आनेवाले परिवर्तनों में अपने आप को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ बनाएं रखने का प्रयास करना चाहिए।
दिनचर्या पालन – प्रतिदिन करने योग्य आचरण ब्राह्म मुहूर्त मे उठनाः
- सूर्योदय से लगभग देढ घण्टे पह्ले रात का अन्न ठीक से पच जाने पर उठकर प्रथम दर्पण में अपने मुख का दर्शन करना चाहिए जो मंगलकारी, पुष्टिकर, बलदायी, आयुष्य वर्धक होता है। हवा शुध्ध होती है और वातावरण में शांति रहती है तब ईश्वर स्मरण करना चाहिए। उस वक्त जल का पान करना चाहिए जिसे उषःपान कहते हैं जिससे कब्ज, बवासीर, पेट के रोग, रक्तपित्त, कान, गला, आंख, शिर के रोग जैसे रोगों से बचाव एवं नियंत्रण संभव है।
शौचविधिः
- नियमित मलत्याग उत्तम आरोग्य के लिए अति आवश्यक है।
- महिलाएं कार्य मे व्यस्तता के कारण मल, मूत्र जैसे उत्पन्न हुए वेगों को रोकती हैं।
- उत्पन्न हुए वेग को रोकना पैरदर्द, जुकाम, शिर मे दर्द और कइ सारे रोगों की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। इसलिए कभी मल मूत्रादि के उत्पन्न वेग को रोकना नहीं चाहिए।
- अगर कब्ज रहती हो तो उसे नियमित व्यायाम, स्निग्ध प्रवाही आहार, बस्ति, औषध प्रयोग करके जितना हो सके जल्दी दूर करना चाहिए।
नस्यः
- औषधि द्रव्य, औषध सिद्ध तेल और घी आदि को वैद्य की सूचना अनुसार नाक में डालने को नस्य कह्ते हैं। स्वस्थ अवस्था मे भी यह क्रिया करने से उर्वजत्रुगत यानि शिर के रोगों (बाल गिरना, बाल पकना, चहेरे का लकवा, आधाशीशी, आंख नाक कान के रोग, गर्दन की जकडन, सिरदर्द आदि) से बच सकते हैं।
गण्डूष धारण:
- स्वस्थावस्था में तेल से और विशेष अवस्था में वैद्य की सूचना अनुसार योग्य औषधि सिद्ध तेल, दूध, क्वाथ, स्वरस, शीत जल, गोमूत्र, घी, को मुखमें इधर उधर धूम न सके उतने प्रमाण में भर के रखने को गण्डूष धारण करना कहते हैं। यह प्रक्रिया से जीभ स्वच्छ रह्ती हैं, खाने मे रुचि उत्पन्न होती हैं, स्वर अच्छा बनता है, होंठ फटते नही, दांत के मूल मजबूत बनतें हैं जिससे दांत जल्दी गिरते नही।
अभ्यंग – मालिशः
- स्निग्ध द्रव्यो के साथ मालिश करना
- नित्य अभ्यंग करने से थकान, वायु के रोग एवं वृद्धावस्था दूर रहती है। सामान्य रूप से तिल के तैल से अभ्यंग संपूर्ण शरीर पर करना चाहिए और विशेष रूप से शिर, कान और पैर के तलुओं मे करना चाहिए।
- शिर में तैल मालिश करने से केशवृद्धि, चहेरे की कांति बढती है, बाल गिरते नही, नींद अच्छे से आती है और शिर के रोग नही होते। पैर की मालिश हररोज करने से पैरों में बल और सुकुमारता आती है। पैरों की थकान दूर होती है, नींद अच्छे से आती है एवं वायु के रोग नहीं होते। पैर के तलुवों में मालिश करने से आंखों का तेज बढता हैं।
शरीरमार्जन(उद्वर्तन): औषधिय चूर्णो से शरीर को रगडना
- निष्णात के सूचन अनुसार योग्य चूर्ण से अभ्यंग के बाद और कफ काल (वसंत ऋतु) में उद्वर्तन करने से त्वचा स्वच्छ्र, कांतियुक्त बनती है, अंगो मे दृढता आती है और शरीर की सुंदरता में वृद्धि होती हैं। यह मेदस्विता को भी कम करता है। इस तरह अभ्यंग और उद्वर्तन से महिलाएं अपनी त्वचा को सुंदर एवं रोगरहित बना सकती हैं।
स्नानः
- स्नान से पवित्रता, आयुष्य की वृद्धि, शुद्धता, सभी इंद्रियांे में निर्मलता प्राप्त होती है, थकान दूर होती है, ओज बढता है और हृदय को बल मिलता है।
- शिर को ठंडे पानी से और बाकी शरीर को उष्ण पानी से धोना चाहिए। गरम पानी से शिर धोने से आंखों का तेज कम होता है।
- कटि स्नान (टब स्नान) कमर के दर्द एवं ऋतु संबंधी तकलीफ में बहुत फायदेमंद रहता है। ऋतु अनुसार शरीर से कम तापमान वाला जल प्रयोग करना चाहिए। कब्ज, कमर दर्द, अनिद्रा, श्वेतप्रदर आदि अवस्था में लाभकारी है।
- पैरो कों गर्म और ठंण्डे पानी में बारी बारी 10-10 मिनिट तक रखने से शिर दर्द, पैरो की दरार, पैरो की थकान दूर होती है और नींद अच्छे से आती है।
- भोजन के तुरंत बाद, अजीर्ण और अरुचि मे स्नान नहीं करना चाहिए।
व्यायाम
- जो चेष्टा मन के अनुकूल हो और शरीर में स्थिरता एवं बल को बढाती हों, उस कर्म को व्यायाम कहते हैं।
- व्यायाम करने से शरीर मे हलकापन, स्थिरता, और बल वृद्धि होती है, कार्य करने का उत्साह बढता है, पाचन शक्ति बढती है, शरीर सुडौल बनता है, वृद्धावस्था देर से आती है और क्लेश (दुख) सहने की क्षमता आती है।
- वय, बल, ऋतु, देश इत्यादि को ध्यान में रखकर मात्रापूर्वक व्यायाम करना चाहिए। स्वस्थ अवस्था में अर्धशक्ति तक व्यायाम करना चाहिए। खाने के तुरंत बाद व्यायाम नहीं करना चाहिए।
- मात्रावत् व्यायाम के लक्षण – शरीर में लघुता उत्पन्न हो, पसीना आना, श्वास गति का बढना आदि
- अर्धशक्ति व्यायाम के लक्षण – माथे पें, नाक में, हाथ और पैरों की संधियो में, बगल में पसीना आना, मुख सूखने लगना इत्यादि
- ऋतु के अनुसार व्यायाम का प्रमाण – हेमंत, शिशिर, वसंत ऋतु मे उपरोक्त अर्धशक्ति व्यायाम करना चाहिए, और अन्य वर्षा, शरद ग्रीष्म ऋतु में उससे भी कम प्रमाण में व्यायाम करना चाहिए