आज के समय में स्वास्थ्य समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या है – ‘हाइपरथाइरोडिज़्म’। यह एक ऐसा विकार है जिसे जीवन शैली में बदलाव करके काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। थाइरोइड़ ग्रन्थि कण्ठ के निचले भाग के दोनो ओर तथा कंठ नली के उपर के भाग के आगे स्थित होती है। लगभग 25 ग्राम की यह ग्रन्थि अपने दो पार्श्वीय खंडो (lateral lobes) तथा नीचे की तरफ उनको मिलाने वाले संयोजक खंड इस्थमस (Isthmus) से मिलकर बनी होती है। दोनो पार्श्वीय खंड (lateral lobes) श्वासनली (Trachea) के आजूबाजू रहते हैं। इस्थमस (Isthmus) की स्थिति श्वासनली (Trache) की दुसरी, तीसरी और चौथी रींग के आगे रहती हैं। सरवाइकल फेसिया में लिपटी हुई यह ग्रन्थि पीछे की तरफ लेरिंक्स से जुडी रहती हैं।
इसका प्रत्येक खंड (lateral lobe) छोटी छोटी खंडीकाओं (lobules) से बना होता है और प्रत्येक खंडीका 20 से 40 सूक्ष्म थैलियों (vesicles), जो चारो ओर से स्नायु तंतु द्वारा बंधी हुई होती है, से बना होता है। ये वेसीकल्स या थैलियां अन्दर की ओर से एपीथिलियम सेल्स से आवरित होती है तथा इनमें गाढा द्रव (colloid) भरा होता है जिसे आइडोथायरोग्लॉबिन (Idothyroglobin) कहते हैं। इसी गाढ़े द्रव (colloid) के रूप में ही थाइरोइड़ ग्रन्थि के दोनो हॉर्मोन जमा होते रहते हैं। कोलोइड (colloid) के रूप में जमा थायरोग्लोबिन का अणुभार ज़्यादा होता है अतः यह सीधे रक्त में प्रवेश नहीं कर सकता। पहले इस पर प्रोटोलाइटिक एन्जाइम की क्रिया होती है तत्पश्चात यह रक्त में साबित कर दिये जाते हैं।
भोजन से प्राप्त आयोडीन को रक्त की सहायता से थाइरोइड़ ग्रन्थि में लाया जाता हैं, जहा इसे आयोडिनट्रेपिंग क्रिया द्वारा इलेक्ट्रोकेमिकल ग्रडियेन्ट के विरूध सक्रिय स्थानांतरण द्वारा रक्त से फोल्क्यिुलर कोशिकाओं को भेजा जाता है। इस कार्य में आयोडीन पम्प या सोडियम आयोडिन सिम्पोर्ट पम्प मदद करता है। इस आयोडीन को थायरोक्सी पाइरीडेस (TPO) एन्जाइम द्वारा आक्सिडाइस कर दिया जाता है। अब टायरोसिन अमिनो अम्ल से बने हुये थायरोग्लोबिन के साथ आक्सिडाइस आयोडीन जुड़ जाता है और मॉनोआइडोथायरोसीन (Mono-idothyrosin) और डायआइडोथायरोसीन (Di-idothyrosin) का निर्माण होता है। टायरोसीन और आक्सिडाइस आयोडीन के जुड़ने की क्रिया को आयोडिनेशन कहते हैं। यह प्रक्रिया फोल्क्यिुलर कोशिकाओं द्वारा स्त्रावित आयडोनेज एंजाइम की उपस्थिति में शीघ्रता से सम्पन्न होती है। प्रथमतया इस क्रिया से टायरोसीन के आयोडिनेशन से मॉनोआइडोथायरोसीन (Mono-idothyrosin) अणु बनता हैं। पुनः यही क्रिया मॉनोआइडोथायरोसीन के साथ दोहराने पर डायआइडोथायरोसीन (Di-idothyrosin) अणु बनता हैं।
एक मॉनोआइडोथायरोसीन (Mono-idothyrosin) और एक डायआइडोथायरोसीन (Di-idothyrosin) का अणु मिल कर ट्राइआइडोथायरोनिन (Tri-idothyronine) अर्थात T3 हॉर्मोन तैयार होता हैं। वही दो डायआइडोथायरोसीन (Di-idothyrosin) का अणु मिल कर टेट्राआइडोथायरोनिन या थायोक्सिन (Tetra-idothyronineor thyroxine) अर्थात T4 हॉर्मोन तैयार होता हैं। थायोक्सिन (thyroxine) अर्थात T4 हॉर्मोन थाइरोइड ग्रन्थि का मुख्य हॉर्मोन है जो 90% तक स्रावित होता है, यह धीमे क्रिया करता है इसका अर्धजीवनकाल (Half-life) लगभग 7 दिन का होता है। जबकि T3 हॉर्मोन 10% तक स्रावित होता है और यह शीघ्र क्रिया करता है, इसका अर्धजीवनकाल (Half-life) 10 से 24 घन्टे ही होता है।
थायोक्सिन (T4) हॉर्मोन का स्रवण आयोडीन और लिथियम आदि के द्वारा कम कर दिया जाता है।
केवल थायरॉइड ऐसी ग्रन्थी है जो अपने हार्मान्स को 4 महिने तक संग्रह करके रख सकती है। अर्थात यदि आज से आयोडीन की अनुपलब्धता भोजन में हो तो भी हॉर्मोन की कमी के लक्षण 4 महिने बाद दिखाई देंगे।
हाइपर थाइरोडिज़्म में थाइरोइड़ की क्रियाशीलता अत्यधिक बढ़ जाती है। जिससे शरीर में होने वाली धातु पाचन अर्थात केटाबोलिक क्रियाएं बढ़ जाती है, और शरीर में धातुओं का क्षय होना प्रारम्भ हो जाता है; और लम्बे समय तक यही स्थिति रहने पर रोगी कृशकाय हो जाता है। प्रारम्भ में रोगी में घबराहट, चिन्ता, चिड़चिड़ापन, मूड स्वींगींग, अनिद्रा, थकन, कमज़ोरी, हृदयगति में अनियमितता; क्रोध और ताप के प्रति संवेदनशीलता का बढ़ना आदि पित्त प्रधान लक्षण देखने में आते हैं; जो धीरे-धीरे बढ़ते जाते है।
चिकित्सा के मेरे अनुभवों में एैसे काफ़ी रोगी देखने में आये हैं किन्तु यहा मैं एक ऐसे रोगी की चर्चा करूंगा जो एलोपैथिक चिकित्साकों लेकर थकने के बाद अखंडानंद आयुर्वेद चिकित्सालय में चिकित्सा हेतु मेरे पास आयी थी। एलोपैथिक चिकित्सको द्वारा उसके परिक्षणों के आधार पर हाइपरथाइरोडिज़्म रोग का निदान किया गया था। पारिवारिक इतिवृत लेने पर ज्ञात हुआ कि रूग्णा की पुत्री, माता एवं नानी में भी इसी प्रकार के लक्षण थे। सभी की प्रकृति वातपैत्तिक थी। मुख्य समस्या के रूप में अनिद्रा और विबन्ध थी- जो क्रोध, घबराहट, चिन्ता और चिड़चिड़ापन, मूड स्वींगींग के साथ में उपस्थित थी।
सामान्यतः लाक्षणिक चिकित्सा से लक्षण़्ाों में थोडा आराम आने पर रोगी आप में विश्वास जता कर आगे की चिकित्सा आराम से ले लेता है। इसी सोच से प्रारम्भ में लाक्षणिक चिकित्सा करके तत्पश्चात तीक्ष्णाग्नि और भस्मक रोग को ध्यान में रख कर मूल रोग की चिकित्सा मैने प्रारम्भ की।
अविपत्तिकर चूर्ण 3ग्राम, कामदुधा रस 125मिग्रा, सूतशेखर रस 125मिग्रा – उपरोक्त मिश्रण की दो मात्रा प्रति दिन भोजन से 1/2 घन्टे पहले।
शतावरेक्स ग्रेन्यूल्स दूध के साथ दिन में 2 बार प्रातः एवं रात्रि में सोने से पहले करवाया गया। रोगी को निर्देश दिये गये थे कि भोजन के अतिरिक्त समय में जब भी भूख लगे शतावरेक्स ग्रेन्यूल्स को केले में मिक्स करके ले ले।
रोगी के अनुसार अनिद्रा, कम्पन और क्रोध जैसे लक्षणों में प्रथम सप्ताह में ही थोड़ा लाभ प्रतीत हुआ। दूसरे सप्ताह में उत्तरोतर लाभ प्रतीत होने लगा।
इस प्रकार के रोगी में विबन्ध का लक्षण मल क्षय के कारण होता है यह मान कर उडद की दाल का सेवन दूसरे सप्ताह के बाद शुरू करवाया गया। जिससे मल की मात्रा में वृद्धि होने के साथ साथ अत्यधिक क्षुधा जैसे लक्षणों में कमी आ गई।
रोगी को ऋतुनुसार भोजन का निर्देश देते हुऐ 2 महिने तक चिकित्सा की गई। अब रूग्णा सामान्य हो गई थी अपनी बेंक की नौकरी पुनः शुरू कर दी थी। दवा के रूप में केवल शतावरेक्स ग्रेन्यूल्स को अगले 3 महिने तक लेने के लिए कहा गया था। 6 महिने बाद रूग्णा का वज़न भी 7 किग्रा बढ़ गया था। इस प्रकार दोषांे के आधार पर चिकित्सा करने का यह प्रयास फलिभूत हुआ।