शिर के बालों में एक बाल भी यदि सफेद दिख गया तो व्यक्ति परेशान सा हो जाता है – अरे, अब तो बुढापे की ओर यात्रा शुरु हो गई। जैसे जैसे उम्र बढती जाती है वैसे वैसे शरीर में जाने – अनजाने चुपके से उस बढती हुई उम्र अपना संकेत देने लगती है। परिवर्तन संसार का नियम है। यह एक बहुत ही स्वाभाविक प्रकृतिक घटना है और उसका उतने ही सहज रुप से स्वीकार किया जाना चाहिए। श्रीमद भगवद गीता में बहुत सुंदर कहा है –
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित हैः इसलिए उसका शोक नहीं करना चाहिए।
ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में भी प्रतिदिन असंख्य कोषिकाएॅं जन्म लेती रहती है और मरती रहती है। लेकिन उम्र के बढने के साथ साथ नई कोषिकाओं के बनने की गति क्रमशः मंद होती जाती है और उसीका परिणाम है – वृद्धावस्था।
बाल्यं वृद्धिश्छविर्मेघा त्वगद्रष्टिः शुक्रविक्रमौ।
बुद्धिः कर्मेंन्द्रियं चेतो जीवितं दशतो ह्ररसेत्।। (शा.पू.6/16)
स श्लोक में कहा गया है कि, हर एक दशक में शरीर के इन भावों का क्षय होता है, जैसे कि दस साल बाद बाल्यावस्था, बीस साल बाद शरीर की वृद्धि, तीस साल बाद कांति, चालीस साल बाद मेधाशक्ति और 50 साल बाद त्वचा की स्निग्धता आदि का क्षय होता जाता है और व्यक्ति क्रमशः अपने बुढापे की ओर आगे बढता रहता है।
आयुर्वेद के आठ अंगों में एक अंग है – जरा अर्थात् वृद्धावस्था को रोकनेवाली चिकित्सा या उपाय, जिसे ‘रसायन‘ कहते हैं। वृद्धावस्था के कई लक्षणों में एक सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षक है – त्वचा, जो कि शरीर का सब से बडा अंग है। उम्र के बढने से त्वचा में स्पष्ट बदलाव देखने को मिलते हैं। जैसे कि – झुरियां, निस्तेजता, शिथिलता, सफेद या सांवले धब्बे आदि। इन में भी झुरियों का मुख्य कारण है – रस, रक्त और मांस धातु का क्षय होना। यदि इन धातुओं का क्षय नहीं होता है तो उम्र ज्यादा होने पर भी त्वचा में झुरियों दिखने में नहीं आती। वृद्धावस्था के अतिरिक्त त्वचा में होने वाले इन बदलावों के कई और भी कारण हो सकते हैं – जैसे कि,
- खान-पान की गलत आदतें
- योग्य मात्रा में नींद न लेना, रात को देर तक जगना
- मानसिक तनाव
- अधिक धूम्रपान, तम्बाकु का सेवन
- अधिक मद्यपान
- ज्यादा देर तक धूप में घूमना
- प्रदूषणयुक्त पर्यावरण में रहना
- जीर्ण व्याधि
अब देखते हैं कि किन कारणों से त्वचा पर वार्धक्य का प्रभाव छोटी उम्र में ही दिखने लगता है –
- पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को अकाल में अर्थात् छोटी उम्र में ही झुरिया होने लगती है और बाल भी सफेद होने लगते हैं । इसके निवारण हेतु उनको ज्यादा खट्टा, तीखा, नमकीन और उष्ण खाध्य पदार्थों से और धूप में घूमने से, अति क्रोध करने से परहेज करना होगा।
- रक्त धातु क्षीण होने पर त्वचा कठोर, फटी हुई, मुर्झाई हुई और रूक्ष हो जाती है। अतः लोहतत्व युक्त आहार और औषधियां लेनी चहिए।
- ओज (सप्त धातुओं का सार भाग) क्षय- यदि शरीर की सभी धातुओं का क्षय होगा तो ओज का क्षय होना स्वाभाविक है। ओज क्षय के कारण त्वचा निस्तेज हो जाती है। दीर्घकालीन व्याधि में ओज क्षय होता है, अतः उस व्याधि की समुचित रूप से चिकित्सा करना आवश्यक है।
वर्तमान में जो हमारी जीवनशैली है उसके कारण अकाल में ही बुढापे के लक्षण दिखने लगते हैं। इसलिए “Prevention is better than cure” इस सूत्र का महत्व समझते हुए यदि बचपन से ही शरीर स्वास्थ्य संबंधी अच्छी आदतें डाली जाय तो हम अपनी उम्र को आगे बढने से रोक तो नहीं सकते लेकिन उसके प्रभाव को जरूर कम कर सकते हैं। खास करके त्वचा के सौंदर्य को बनाए रख सकते हैं।
आयुर्वेद में त्वचा के लिए विस्तृत और गहन साहित्य उपलब्ध है। सुश्रुत संहिता में त्वचा के सात स्तर बताए गए हैं – जो बाहर से अंदर की तरफ जाते हुए इस प्रकार से हैं:
- अवभासिनी – वर्ण को प्रकाशित करती है।
- लोहिता – इस में रक्तधातु की अधिकता रहती है।
- श्वेता
- ताम्रा
- वेदिनी
- रोहिणी
- मांसधरा – यह स्तर मांसधातु से संलग्न रहता है।
इन सभी स्तर में कौन से रोग होते हैं यह भी आचार्य ने बताया है, जैसे कि सब से अंदर वाले स्तर मांसधरा में भगंदर, बवासीर और विद्रधि(Abscess) होते हैं। वृद्धावस्था आने से पहले ही यदि त्वचा के स्वास्थ्य का पूरा खयाल नहीं रखा गया तो अकाल में ही त्वचा मुर्झाने लगेगी।
त्वचा के कार्य:
- रक्षणः आंतरिक अंगों तथा प्रत्यंगों का बाह्य पर्यावरण में उपस्थित हानिकारक किटाणुओं से रक्षण करना।
- शोषणः त्वचा पर किए जानेवाले अभ्यंग – तैल मालिश, विविध प्रकार के उवपेजनतपेमते में उपयुक्त स्नेह द्रव्यों का शोषण करना।
- उत्सर्जनः शरीर में उत्पन्न विषाक्त द्रव्यों का स्वेद के रूप में एवं अतिरिक्त क्लेद का उत्सर्जन करना।
- संश्लेषणः सूर्यप्रकाश की नसजतं अपवसमज किरणों का शोषण करके विटामिन डी का निर्माण करना।
- उष्मा नियंत्रणः शरीर में हर पल होने वाली विविध जैव रासायणिक क्रियाओं के फल स्वरूप उष्मा की उत्पत्ति होती है, त्वचा के माध्यम से संचालन, संवहन, विकिरण एवं बाष्पन द्वारा अतिरिक्त उष्मा को शरीर के बाहर निकालकर शारीरिक उष्मा का नियंत्रण करना।
हम यह जानते हैं कि हमारा शरीर पंचमहाभुत से बना है। पांच ज्ञानेंद्रियों में एक एक महाभुत की अधिकता होती है। स्पर्शनेंद्रिय में वायु महाभुत की अधिकता रहती है और स्पर्शनेंद्रिय का अधिष्ठान है त्वचा। वृद्धावस्था में वैसे ही वात दोष का प्राधान्य तो रहता ही है और त्वचा स्पर्शनेंर्दि्रय का अधिष्ठान होने से उस में भी वायु महाभुत के रहने से त्वचा का सौंदर्य एवं लचीलापन बनाए रखने के लिए विशेष रूप से वात शामक उपाय करना आवश्यक हो जाता है।
त्वचा में उपस्थित पित्त को भ्राजक पित्त कहते हैं, वह त्वचा पर प्रयुक्त स्नेहादि के अभ्यंग, सेचन, अवगाहन और आलेपादि क्रियाओं द्वारा प्र