हमारा शरीर एक जटील संरचना है। “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे” इस उक्ति से कहा गया हे कि हमारे शरीर की एवं इस ब्रह्माण्ड की रचना समान है। जैसे विश्व की स्थिति एवं विनाश में चंद्र, सूर्य और वायु कारण हैं वैसे ही शरीर का निरोगी एवं रोगी होना दोषों की स्थिति पर आधारित है। आओ अब मानसिक तनाव जन्य व्याधि के बारे में विस्तार से समझते हैं।
दोष दो प्रकार के होते हैं – शारीरिक दोष और मानसिक दोष। वात, पित्त एवं कफ शारीरिक दोष और रज एवं तम मानसिक दोष हैं। जब तक दोष साम्यावस्था में रहते हैं तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब इन में विकृति आती है या विषम बनते हैं, तब शरीर और मन में रोग होना प्रारंभ होता है।
शारीरिक दोष में विकार होने पर उसका असर मन पर और मानसिक दोष में विकार होने पर उसका असर शरीर पर भी देखा जाता है। यह बात हम एक सरल दृष्टांतसे समझ सकते हैं कि जब हम कोई महत्वपूर्ण परीक्षामें उत्तीर्ण नहीं हो पाते तब उसका असर हमारे मन पर होता है, हम दुःखी हो जाते हैं, कहीं मन नहीं लगता। उसी दौरान हमारी भूख गायब हो जाती है और पाचन शक्ति भी कम हो जाती है। यह दर्शाता है कि हमारे मन में विकार होने पर उसका असर शरीर पर भी दिखाई देता है। वैसे ही शरीर में उत्पन्न हुए विकार मानस पर भी असर करते हैं जैसे कि कुष्ठ जैसे त्वचा के विकार शरीर में होते है और उनका असर मन पर भी देखा जाता है।
व्यक्ति में जब रजो दोष बढ़ता है तब वह क्रोधादि से युक्त होता है और जब तमो दोष बढ़ता है तो वह अज्ञान एवं भयादि से युक्त होता है। जब मन में सात्त्विक गुण की वृद्धि होती है तब व्यक्ति में सत्य, पवित्रता आदि भाव दिखाई देते हैं।
तनाव – आज के समय में तनाव बहुत ही सामान्य बन चुका है। जो शारीरिक एवं मानसिक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। मानसिक रोग इष्ट की अप्राप्ति तथा अनिष्ट के आगमन के कारण उत्पन्न होते हैं। हमारे आसपास हो रही एसी बहुत सी घटना या बातें जो हमारे मन के अनुकूल नहीं होती हैं वो सब तनाव को उत्पन्न करती है जैसे – सेवा निवृत्ति, तलाक, विवाह, निश्चित समय में कार्य-पूर्ति की जिम्मेदारी, वाहनों का ट्राफिक जाम, गरीबी, बिमारी, पारिवारिक जिम्मेदारी या झगड़ा, ऐसी परिस्थिति का निर्माण रोज की ज़िन्दगी में होता ही रहता है। मानसिक तनाव को चिंता, अवसाद, क्रोध, ईर्ष्या, लज्जा, आत्मघाती विचार, नकारात्मक विचार, निराशा के रूप में देखा जा सकता है।
इन्द्रियों के अपने विषयों से अतियोग, हीनयोग एवं मिथ्या योग होने पर उनमें विकार उत्पन्न होते हैं। मन भी एक इन्द्रिय है और चिंतन, विचार, ऊह्य, ध्येय, संकल्प और जिसका ज्ञान मन के द्वारा होता है जैसे सुख, दुःख आदि उनके विषय हैं। मन इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है और स्वयं पर भी नियंत्रण रखता है।
चिंतन – कोई कार्य करना है या नहीं करना है यह विचार करना
विचार्य – हेतु के द्वारा किसी वस्तु स्थिति का निश्चय करना
ऊह्य – संभावना के आधार पर अनुमान करना
ध्येय – गुण दोषों के आधार पर किसी एक निश्चय पर पहुँचना
संकल्प – दृढ़ निश्चय
मन के अपने विषयोंके साथ समयोग होने से आरोग्य (मानसिक) की प्राप्ति होती है और जब मन के अपने विषयों के साथ अतियोग, अयोग (हीनयोग) एवं मिथ्या-योग होने पर मन में विकृति उत्पन्न होती है, जिसके कारण मानस रोगों की उत्पत्ति होती है।
प्रज्ञापराध के द्वारा ही पुरुष अपनी इन्द्रियों द्वारा अहित विषयों की ओर प्रवृत्त होता है।
धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत्कुरुतेड्शुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात सर्वदोषप्रकोपणम्।। चरक संहिताध्शारीर स्थान /१/१०२
धी, धृति तथा स्मृति के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति जो अशुभ कार्य करता है उसे प्रज्ञापराध कहते हैं, जो सभी दोषों को प्रकुपित करता है।
धी भ्रंश – विषम बुद्धि – हित को अहित और अहित को हित समजना।
धृति भ्रंश – मन को अहित विषयों से हटाना संभव नहीं है ।
स्मृति भ्रंश – तत्त्वज्ञान (पूर्व स्मरण ज्ञान) को स्मरण करने पर याद न होना।
मनुष्य विचारषील एवं भावप्रवण होने के कारण जीवन में बनने वाली छोटी छोटी घटनाओं से भी प्रभावित होकर प्रतिक्रियाएँ व्यक्त्त करता है।
आयुर्वेद शास्त्रमें अप्रशस्त मानसिक कर्म में लोभ, शोक, भय, क्रोध, अहंकार, निर्लज्जता, इर्ष्या, अतिराग, अभिध्या को गिना है।
जिसकी इच्छा शक्त्ति निर्बल होती है उसे विविध प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है, उसके विचार प्रतिगामी होते हैं। वह एक छोटा सा रोग होने पर भी अपनी मृत्यु की कल्पना करता है। कई बार वो कल्पनिक रोगो के भयसे ही त्रस्त रहता है।
क्रोध से उच्च रक्तचाप एवं खिन्नता से निम्न रक्तचाप के लक्षण मिलते हैं। क्रोध के वर्ग में द्वेष, धृणा, आक्रमण, विनाश जैसे क्रूर विचार एवं कृत्य गिने जा सकते हैं। खिन्नता वर्ग में निराशा, उदासी, चिंता, शोक, भय, संकोच इत्यादि निष्क्रियता उत्पन्न करने वाले विचार एवं कृत्य समाविष्ट होते हैं। दोनो ही स्थिति में मानसिक संतुलन सामान्य नहीं रहता। अति खुशी और अति दुःख के आवेशमें योग्य चिंतन करके सही निष्कर्ष पर आना कठिन होता है।
विवेकपूर्ण क्रोध (सात्त्विक क्रोध) को नीतिकारोने अनीति, अन्याय, दुष्टता और असुरता के प्रतिषेध के लिए आवश्यक बताया है। परंतु विवेकहीन क्रोध निश्चित ही अमंगलकारी और हानिप्रद है। कवि बाणभट्ट ने क्रोधी मनुष्य को आँख होते हुए भी अंधे के समान बताया है। भगवद गीता में भी कहा है कि –
क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। भगवद गीता अध्याय-२
इसी तरह रामायणमें भी क्रोध को प्राण लेने वाला शत्रु एवं सर्वनाश की ओर ले जाने वाली राह बताई गई है।
क्रोध आने पर शरीर की मांसपेशीयोमें खिंचाव होता है, जिसका असर पूरे शरीर पर होता है। क्रोधावस्थामें शरीर एवं मन दोनों की ऊर्जा का विशेष क्षय होने लगता है, जिसका प्रभाव संपूर्ण शरीर एवं मन पर होता है। मस्तिष्क सारे शरीर का नियंत्रणकर्ता है, इसलिए मस्तिष्कमें जब विकार आता है तब शरीर पर भी उसका असर देखने को मिलता है। इसलिए क्रोध, धृणा, निराशा के रूप में मानसिक तनाव के कारण भोजन के पचने की क्रियामें गडबडियाँ होती हैं, अल्सर हो सकता है और वृद्धावस्था के लक्षण समय से पहले दिखाई पडते हैं। शरीर की विविध ग्रंथियोँ से उत्पन्न होने वाले अंतःस्रावो में विषमता होती है, जिस कारण स्रावो से शरीर में होने वाली क्रिया ठीक तरह से नहीं हो पाती। क्रोध शक्त्ति का नाश करते हुए शरीर एवं चहेरे की सुंदरता को भी नष्ट करता है।
क्रोधयुक्त माँ का दूध पीने से बच्चे के पेट में पाचन क्रिया में गडबडी होती है, साथ ही आगे चलकर और भी विकार हो सकते हैं। इसलिए कहते हैं कि बच्चे को जब स्तनपान कराए तब माँ का मन शांत होना चाहिए।
आयुर्वेद शास्त्र में ज्यादातर रोगो की उत्पत्ति में मानसिक तनाव को कारणभूत बताया गया है। जैसे कि शिरोरोग, हृद्रोग, कृशता, रक्त दुष्टी, ज्वर, कुष्ठ, धातुक्षय, उन्माद, अपस्मार, वायु के रोग, वातरक्त्त, शूल, अर्श, पाण्डु, अतिसार।
मानसिक रोगों से कैसे बचा जाये?
मनोनिग्रह –
हमारे शास्त्रो में एवं आयुर्वेद में मन को शांत रखने के लिए अनेक उपाय बताए गये हैं। मन को इधर-उधर भटकने से रोकने के लिए विचारों का उत्तम होना जरूरी है साथ ही जीवनशैली नियमित होना आवश्यक है। हितकर आहार (सात्त्विक गुण-युक्त) और व्यवहार का सेवन करना चाहिए। अपनी उम्र के अनुसार नींद लेनी चाहिए। आयुर्वेद में बताये दिनचर्या, ऋतुचर्या, रात्रिचर्या एवं सद्धत का पालन करना चाहिए। अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) से शरीर और मन को स्वस्थ रखा जा सकता है।
क्रोध हमेशा जल्दबाजी का परिणाम होता है इसलिए क्रोध आने पर जल्दबाजी न करें। क्रोध आने पर ठंडा पानी पीकर क्रोध को शांत करें या मन को कोई ओर कार्य करने में लगा दें या मनोरंजन की ओर प्रवृति करें या शारीरिक एवं मानसिक व्यायाम करें।
जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाएँ। अपने आप को व्यस्त रखना भी मानसिक तनाव से मुक्त्त रखने का अक्सीर उपाय है। ईश्वर में आस्था रखनी चाहिए और अपने आप में भी आस्था रखनी चाहिए।
खिलखिलाट हँसना भी स्नायुतंत्र एवं मानसिक तनाव को दूर करने का उत्तम उपाय है। जिससे शरीर की नाडीयाँ और मांसपेशीयाँ प्रभावित होती है। पाचक रसों का स्राव अच्छे से होता है, संपूर्ण शरीर में रक्त्त परिवहन सुचारु रुप से होता है और शरीर में जीवन तत्त्व की सक्रियता बढ़ती है। द्वेष भाव भी हास्यवृति से खत्म हो सकता है। जो हँसना नही जानता, वह जीना नहीं जानता। मनोवैज्ञानिकों के अनुभवों से यह सिद्ध है कि इर्ष्या, द्वेष, क्रोध, उत्तेजना, भय, चिंता आदि मनोविकारों एवं शारीरिक रोगो में जो विष उत्त्पन्न होता है, उसके शोधन के लिए हास्य एक कारगर प्रयोग है।
एक उत्तम खिलाडी की भाँति जीवन में आने वाली हार और जीत की परवाह किये बिना जीवन को आनंद एवं संतोष के साथ जीना चाहिए।
प्रसन्नता एक मानसिक टॉनिक है। महात्मा गांधीजी ने भी अपने बारे में कहा है कि “यदि मुझमें विनोदप्रियता की वृत्ति न होती तो मैं चिंताओं के भार से दबकर कभी का मर गया होता। यह मेरी विनोदप्रियता ही है जो मुझे चिंताओमें घुलने से बचाए रखती है।“ हर समय प्रसन्न रहने से मन के मलिनता, खिन्नता तथा विक्षेप आदि विकारदूर हो जाते हैं।
मनोनुकूल संगीत जैसे भजन, शास्त्रीय संगीत, मधुर गायन का श्रवण करना चाहिए जिससे मन शांत, ताजगीपूर्ण और तनाव से मुक्त बनता है। मन की सकारात्मक शक्ति को बढाए ऐसी पुस्तके पढ़नी चाहिए। अपने शौक की प्रवृत्ति भी करे