विश्वव्यापी कोरोना संक्रामक महामारी ने वर्तमान और भविष्य पर अनेक प्रर्श्नाचिन्ह बना दिये हैं। इस प्रकार का और इतना भयानक रोग भी आ सकता है और जिससे न विश्व की सारी अर्थव्यवस्था पर विपरित प्रभाव पड़ा है, अपितु जनजीवन भी अस्तव्यस्त हो गया है। अब आनेवाले निकट भविश्य में वह छलांगे लगाने वाली जीवनशैली नहीं मिलेगी। इस कोरोना के महाजाल से मुक्त होने में अभी समय लगेगा। शारीरिक पीड़ा से ज्यादा मानसिक पीड़ा ने सबकी उमंग रोक दी है। क्योंकि हम हमारे व्यापक परिवेश में निर्बाध् रूप से घुमपिफर नहीं रहे हैं। अतः सभी ने सामान्य पैफशन को भी लगभग तिलांजली दे दी है।
किन्तु जीवनरक्षक औषध्यिों और जीवनरक्षक लोगों के कारण हम अभी भी वर्तमान देख रहे हैं और भविष्य का सपना लिये हुए हैं। इन डॉक्टरों, वैद्यों, व्यवस्थापकों का ध्न्यवाद, जो हमें एक तरह से जीवनदान दे रहे हैं।
प्राचीन आयुर्वेद पत्रिका के प्रकाशन पर )षि दवेजी को हार्दिक शुभ कामनायें। आपने बड़ा लक्ष्य अपने सामने रखा है। आयुर्वेद आज का नहीं है, यह तो वेदों की तरह सृष्टिरचना के समय का ज्ञान है। परमात्मा ने सब कुछ आपके सामने प्रकृति के रूप में प्रदर्शित भी किया है और मानवजाति के लिए भोग के साथ ज्ञान, मन के साथ बुद्धि भी दी है, उसके लिए वेद भी दिये हैं।
‘शरद्ःशतम जीवेम’ के भाव मानव समाज के लिए वेदों में पहले ही उद्घृत है। मनुष्य ने सौ वर्ष स्वस्थ रहते हुए जीना है और यदि उससे ऊपर भी जीता है तो इसी तरह स्वस्थ रहते हुए भी ईश्वर की उपासना ना छोड़े। वेदों का अध्ययन, अध्यापन करता रहे। सौ वर्ष इसलिए भी की इतनी आयु के बाद ‘जीव’ भी एक बार कहने लगता है कि ‘बहुत जी लिये’ अब दुनिया देखने की इच्छा नहीं रही।
भारत की वैदिक संस्कृति के प्रत्येक ग्रंथ आत्मा को उन्नत करने का प्रयास में दिखते हैं। आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार। सारे दर्शन यही कहते हैं कि मनुष्य अपने दुखों से छुटकारा चाहता है। इन्हीं दुखों से छुटकारा पाने के लिए वह सत्त प्रयत्न करता रहता है। इन प्रयत्नों में भी साहस, कष्ट, उत्तेजना, अहंकार, मोह, प्रलोभन आदि अनेक दोष आते रहते हैं। इंद्रिय सुखों के अति के कारण जो वस्तुयें स्वस्थ होने के लिए प्रयोग में लायी जाती है, वही दोष उत्पन्न करती रहती है। यानी साध्यर्म की वस्तुयें भी एक समय वैर्ध्म मे बदल जाती है।
आयुर्वेदशास्त्रा के अनुसार मनुष्य का र्ध्म ही ‘आरोग्य’ में बने रहना है। निरोगी होना ही मनुष्य का र्ध्म है। आयुर्वेद का विषय मानव जाति को निरोगी बनाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सबसे पहले मनुष्य का स्वस्थ होना आवश्यक है। आरोग्य ही इष्ट प्राप्ति का साध्न है।
जीवन में ‘वात-पित-कप’ इन तीनों तत्वों के असंतुलित होने पर शरीर में धीरे-धीरे क्षीणता आने लगती है। समय पर निदान न होने से यह अलग-अलग रोगों में व्याप्त हो जाता है।
हमारे वैद्यकशास्त्रों में सभी रोगों की जानकारी, लक्षण और उपाय है, जो आज हम देख रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि जो कुछ आप इस संसार में देखते हैं वह सब वेदों में है। यह भी ध्यान में रखें कि यदि वेदों में नहीं है तो जगत में भी नहीं है। सारे साध्य, असाध्य रोगों की चर्चा हमारे वेद-शास्त्रों में है। हमें इसलिए नहीं दिखाई देते क्योंकि हमारी आंखों पर एलोपेथी की चश्मे चढ़े हैं। इससे हम हमारे अष्टांग हृदय, रसरत्नाकर, भेषज, माध्वनिदान, अष्टांग, चरक-सुश्रृत को गहनता से पढ़ नहीं पाये। सुबह से लेकर शाम तक जो आप पृथ्वी की दशा देखते हो या सूर्य के प्रकाश की अवस्था देखते हो, तो उसका अध्ययन हजारों विद्यार्थी, वैज्ञानिक कई हजार तरीकों से करते हैं। ऐसे संकेत वेदों में है। इसे भूलाकर मोटामोटा अध्ययन करते रहने से हम समस्त पुराने ओर नये रोगों का समाधन नहीं ढूंढ़ पाये। क्या कैंसर मानव समाज में इसी काल में आया है? क्या कोरोना की उत्पत्ति इसी काल में हुई, पूर्व में नहीं थी?
सब कुछ है। हमारे पूर्वजों ने जो एक-एक वनस्पति के तिनके का महत्व बताया है। किसी सामान्य वनस्पति के पंचांग मूल, छाल, पूफल, पफल और बीज कितनी विविध्ताओं के साथ उपयोगी है बताया है।
सारे ही शास्त्रा और दर्शन जब दुःखों को कष्टों को दूर करने के लिए हैं तो यह आयुर्वेदशास्त्रा तो आपको रोगमुक्त करने के उपाय सुझाता है। शरीरयंत्रा और शरीर संचालन के सारे तंत्रों, अंगों की व्याख्या करता है इससे कैसे छूट सकता है?
यह मानते हैं कि पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और पाश्चात्य आवलम्बन के कारण हमारे आयुर्वेदशास्त्रा की उपेक्षा सरकार ने भी की और लोगों ने भी। यदि हमारे देश की सरकारों ने आयुर्वेद को उसी तरह की महत्ता दी होती तो आज यह विश्वप्रसि( चिकित्सा प्रणाली हो जाती। देखा जाए ताकि आज भी इसे अच्छी, प्रेरक मान्यता है। विदेशी दवाईयों की तकनीकी संस्थानों को अत्यध्कि बढ़ावा मिला है। इससे हमारे शास्त्रा पिछड़ गये।
अभी भी हमारे लिए बहुत अच्छे अवसर है। हमारा आयुर्वेद विश्व में केवल प्रसद्धि ही नहीं पा सकता अपितु सारे संसार को कोरोनामुक्त किया जा सकता है।
अभी तक हम हल्दी, गिलोय, तुलसी, काली मीर्च, सौंठ, दालचीनी आदि को लेकर सीमित हो गये हैं। इसके विस्तार की आवश्यकता है। जब इन पांच-सात चीजों से हमारी शारीरिक क्षमता और रोग प्रतिरोध्क शक्ति बढ़ा ने में सपफल हुए हैं तो कोरोनाकंटक औषधि क्यों नहीं बना सकते? दारूण अथवा विपरीत परिस्थितियों में ही चुनौतियों का सामना किया जाता है। देश में लगभग 400 आयुर्वेद महाविद्यालय है। साढ़-सत्तर आयुर्वेद औषध्यिों के ब्राण्ड भी हैं। ऐसे अवसरों के समय हम इम्युनिटि अर्थात् शक्तिवर्धक और रोग प्रतिरोध्क औषधी तो बना-बनाकर बेच रहे हैं। किन्तु कोरोना के लक्षणकें को देखकर अचुक औषधी और कोरोना रोध्क औषधी क्यों नहीं बना रहे हैं।
आयुष मंत्रालय के पास भी लगभग 128 आयुर्वेदिक, युनानी कॉलेज हैं। इतना बड़ा आयुष मंत्रालय आपके साथ है। क्या देश के 100 वैद्य इस कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को नहीं लगा सकते? सरकार तो चाहती है कि कोई ऐसा अचूक उपाय मिल जाये जिससे न केवल भारत की प्रसिद्धि बढ़े अपितु भारत के आयुर्वेद को भी प्रचारिक होने का अवसर मिले? यही नहीं क्या इससे भारत को इस कल्याणकारी औषधी से आर्थिक लाभ नहीं होगा?
देश, काल, परिस्थितियां हमें अवसर देती है। रोग आया तो निदान के लिए रोगी भी भटकता है और वैद्य भी और डॉक्टर भी। दोनों के सामने अपने परिस्थितियां हैं, सीमायें हैं। किन्तु इन सीमाओं में आपको चाहिए कि वस्तु अर्थात् वनस्पति अर्थात् औषधी का र्ध्म देखना है, औषधी के प्रयोग और उपयोग देखने होंगे। यदि हम परिस्थितियों का या आपात काल को भोगते रहना चाहे तो यह कोई उपाय नहीं है। यह तो ईश्वर की इच्छा या प्रकृति के परिवर्तन कर छोड़ने जैसी स्थिति हो जाती है। एक प्रयोगशील व्यक्ति और वैद्य इस पर चिकित्सा की दृष्टि से देखेगा।
यहां अब ऐसे भी डाक्टर, वैद्य हैं जो इन अवसरों पर केवल पफीस या शुल्क वसुल करने के इच्छुक रहते हैं। यह चिकित्सा नहीं है। चिकित्सा करने के लिए आपको अपने योग्यता के साथ थोड़ा आत्मावलोकन करते हुए प्रत्यन करना चाहिए।
‘चिकित्सा नास्ति निष्पफला’ चिकित्सा से धर्म लाभ, धन लाभ, मित्रा लाभ, कीर्तिलाभ और प्रयोगलाभ मिलते हैं। ठीक तरह से, यथा योग्य परीक्षाकर उपाय करने से रोगी के रोग शांत होते ही हैं। अब ‘चिकित्सा’ का अर्थ है, रोगी के लक्षणों का अभ्यास, उसका निदान और इसी के साथ-साथ और अन्य विपदाये, दुखड़े क्या-क्या है। शारीरिक रोग की भयानकता के पीछे मानसिक बिन्दु तो नहीं है? क्योंकि जैसे किसी यंत्रा का एक पुर्जा भी बिगड़ जाता है तो मशीन भले ही एकाएक न बंद हो, पर धीरे-धीरे उसकी गति में कमी आती जाती है, पिफर एक समय बाद ज्यादा विकृति आ जाती है। इसलिए यह आवयश्यक है कि ‘रोग’ तो जिस कारण उत्प. न्न हुआ हो, किन्तु उसकी विस्पफोटक स्थिति के पीछे क्या