आज-कल ऋतु-संधिजन्य रोगों की चर्चा ज़ोरों पर है, और कभी कोरोना तो कभी कुछ और नाम से विभिन्न वायरसो के संक्रमणों से जनता मे घबराहट फैल रही है। यह तो पक्का है कि घबराने सै या पैनिक होने से स्थिति और बिगडती है, किंतु यह भी सत्य है कि लापरवाही से भी रोग बढता है। लापरवाही मे खाने-पीने की लापरवाही के साथ-साथ रहन-सहन की लापरवाही भी शामिल है। आइये जाने कि क्या है ऋतु-संधिजन्य रोग एवं ऋतु-संधिजन्य काल(Time Between Ritu).
सर्वप्रथम जानते हैं कि ये ऋतु (Ritu) क्या है?
1 वर्ष मे ऋतुऐ 6 होती है – शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद एवं हेमन्त। हर ऋतु दो माहसे बनती है अर्थात 6 ऋतुओं के 12 माह से 1 वर्ष बनता है।
तत्र माद्यफाल्गुनौ-शिशिरः,
चैत्रवैशाखौ-वसन्तः, ज्येष्ठाषाढौ-ग्रीष्मः,
श्रावणभाद्रपदौ-वर्षाः, अश्विनकार्तिको-शरत्,
मार्गशीर्षपौषौ-हेमन्तः।
सन्घि अर्थात जोड या बीच का भाग और काल अर्थात समय ;चमतपवकद्ध
ऋतु-संधि अर्थात इन ऋतुओं में जब बदलाव होता है, तो ऋतु बदलने का काल ऋतु-संधि कहलाता है, जैसे शिशिर के अंतिम दिन और वसन्त के प्रारम्भिक दिनो को ऋतु-संधि कहते है, ऐसा प्रत्येक दो ऋतुओ के मघ्य काल ऋतु-संधि काल कहलाता है। जिन लोगों मे बल कम होता है, उन लोगों के लिये संधिकाल अघिक रोगकारक होता है। ऋतु-संधि के दोरान दो अलग मौसम होते हैं, एक जाने वाला मौसम तो दुसरा आने वाला मौसम। जैसे कभी ग्रीष्म ऋतु में गर्मी पड रही हो तभी अचानक मौसम खराब होकर ठंडा हो जाये। ऐसे समय में शरीर को अनुकूलित होने में समय लगता है और अनुकूलित होने की इस प्रक्रिया में शरीर की व्याधि क्षमत्व भी कम हो जाता है, अतः रोग होने की सम्भावना ज्यादा होती है।
जिस प्रकार हम सब जानते है कि धार्मिक कार्याे में सन्घ्या काल का विशेष महत्व बताया गया है, और ठीक वेसे ही आयुर्वेद में भी संधि काल का विशेष महत्व बताया गया है। एक ऋतु की चर्या को शनैः – शनैः छोड कर दूसरी ऋतु की चर्या पर क्रमशः आना ही इन रोगों से बचने का उपाय है।
”बिना जनोपदोध्वंस (एपेडेमिक) रोग से डरे, बचाव का उपाय करें।”
आचार्य चरक का जनोपदोध्वंस (एपेडेमिक) के बारे मे स्पष्ट मत है। चार स्तरों पर जनोपदोध्वंस से बचने का उपाय इनकी मारकता के बढते हुये क्रम में बताते है।
सामान्य भाव (जो सभी लोगों को प्रभावित करते हैं) को चार स्तरों पर बताया गया है।
पहले स्तर पर वायु (air), दुसरे स्तर पर जल (water), तीसरे स्तर पर देश (site/location), एवं चोथे स्तर पर काल (season)।
चिकित्सा के लिये कहा –
कर्मः पचविधं तेशां भेशजं परममुच्यते।। 13।।
रसायनानां विधिवच्चोपयोगः प्रषस्यते।
अर्थात जब जनोपदोध्वंस के चारों सामान्य कारणों में विकृति आ जाये तो रोगी की चिकिच्सा में सबसे महत्वपूर्ण है – पंचकर्म एवं रसायन का सेवन।
ऐसे में आचार्य चरक के सू़त्र स्थान के 6 अध्याय में वर्णित 3 श्लोंक को नहीं भूलना चाहिए, जो यह बताता है की यदि आप को ऋतु-संधिजन्य रोगों से लडने का बल बनाये रखना है, तो आहार हमेंशा ऋतु के अनुसार लें। जैसे ही ऋतु बदले, धीरे-धीरे अपना आहार बदले लें।
तस्याषिताद्यादाहाराद्द्वलं वर्णश्च वर्धते।
यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेश्टाहारव्यपाश्रयम्।। (च. सू. 6/3)
भारतीय तिथियाँ स्वयं ही मौसम विज्ञान का कार्य करती थीं, ये मौसम बदलने का चिन्ह होती है। जैसे ही पूर्णिमाया अमावस्या आती हैं, लोग अनजाने में ही सजग हो जाते हैं, की मास या ऋतु बदलने का समय आ गया है, और अनजाने में ही आहार-विहार में परिवर्तन ले आते हैं।
त्योहारो में जो खान-पान निश्चत किए गये हैं, वो भी हमारी रोंगो से लड़ने की योजना का ही एक भाग है। आज जो अंग्रेजी महीनो का व्यवहार होने लगा है, ये भी हमारी रोगों से लड़ने की योजना को भुलाने में जिम्मेवार है। यदि आने वाली पीढ़ी को ऋतुचर्या दिनचर्या को सिखाना बेहद ज़रुरी मानकर प्राचीन पद्धति से काल-गणना सिखाई जाये तो स्वास्थ्य रक्षण का सूत्र फलीभत हो सकेगा। मेरा पहला सुझाव है की आयुर्वेद के ज्ञान का कोई भाग अगर सबसे पहले नयी पीढ़ी को देना हो, तो दिनचर्या और ऋतु-चर्या के चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट के अध्यायों से आरंभ करना चाहिये। दूसरा सुजाव है कि प्रत्येक राज्य सरकार को अपने राज्य मे मनाये जाने वाले त्योहारों की सूची (लिस्ट) बनानी चाहिये और उन त्योहारो से जुड़े प्राचीन खान-पान को प्रचारित करना चाहिये। स्थानिक खान-पान को स्थानिक आयुर्वेद चिकित्सकों से जान लेना चाहिये।
कई बार ऋतु के मध्य में भी एपेड़मिक रोग उत्पन्न होने लगते है, जिसका कारण काल का हीन योग अथवा मिथ्या योग अथवा अतियोग (अर्थात एक शब्द में कहे तो ऋतु-वैकारिक भाव होते) है। ऋतु-वैकारिक भावों को जानने के लिये वायु की दिशा, नक्षत्रों ग्रहों की गणना की जो पद्वतियाँ प्रचलित थीं – जो आज उपेक्षित – सी हो गयी है।
नक्षत्रग्रहणगणचन्द्रसूर्यानिलानलानां दिषां
चाप्रकृतिभूतानामृतुवैकारिका भावाः (च.वि. 3/4)
इन सब भावों की जानकारी सामान्य जन तक पहुंचाने में आयुर्वेदिक चिकित्सक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।