सर्दियां शुरू होते ही भारत में उच्च रक्तचाप(high blood pressure) की समस्या प्रारम्भ हो जाती है। कई लोगो की असमायिक मृत्यु भी उच्च रक्तचाप के कारण मस्तिष्क में होने वाले आंतरिक रक्तस्राव के कारण हो जाती है अथवा पक्षाघात तो हो ही जाता है। इस लिये रक्तचाप अथवा रक्त भार को नियमित मापते रहने और कुछ सावधानिया रखने से हृदयघात का खतरा टाला जा सकता है।
सामान्यतः एक युवा एवं स्वस्थ व्यक्ति का रक्तचाप (ब्लड प्रेषर) 120/80 mm-Hg रहता है जो कि उम्र, मोसम एवं श्रम आदि के अनुसार अपनी सीमा में घटता-बढ़ता रहता है। धमनियों के दीवारों पर पड़ने वाले रक्तभार का मापन सिग्मोमैनोमीटर से किया जाता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में रक्तचाप को एक स्वतंत्र व्याधि न मानकर हृदय के विभिन्न रोगों का लक्षण माना जाता है। जबकि आयुर्वेद में उच्च रक्तचाप जैसे लक्षणों वाले हृदय रोगों का उल्लेख मिलता है। इसके लक्षण के अनुसार आयुर्वेद में रक्तगत पित्त एवं वात्त दोष से संबंधित विकृति वाला हृदय रोग माना गया है।
कारण (Cauese) :
सामान्यतः धमनियों में रक्त का दबाव हृदय से अधिक कार्य करने से, अधिक श्रम आदि उत्पन्न कारणों से उच्च रक्तचाप होता है। इसके लिये शरीर में मोटापा, मानसिक तनाव, रक्त में कोलेस्ट्राल की अधिकता, किडनी के विकार, मधुमेह रोग, लवण की अधिकता, कैल्शियम की कमी, रक्त संवहन में अवरोध, धमनियों में कठिनता आदि को प्रमुख माना गया है।
मानसिक तनाव, चिंता, मिथ्या आहार-विहार माने जाते हैं। इन कारणों से वात दोष विकृत हो जाता है जो व्यान वायु को विकृत कर हृदय को उत्तेजित कर देता है जिससे रक्तचाप मे वृद्धि हो जाती है। इसके अतिरिक्त जिन कारणों द्वारा रक्त की द्रवता बढ कर रक्तमात्रा में वृद्धि हो जाती है तो उससे भी रक्तचाप की वृद्धि होती है। रेनिन एंजीयोटेंसिन मेकेनिज्म से आधुनिक रक्तचाप की वृद्धि को समझाते है।
वर्गीकरण/प्रकार (Types):
रक्तचाप की उत्पत्ति के कारकों के आधार पर इसका निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता हैः-
1. प्राथमिक रक्तचाप (Primary Hypertension) अथवा अज्ञात कारक तत्व उच्च रक्तचाप (Essential Hypertension) इसमें बी.पी. हमेशा बढता-घटता रहता है जिसके कारणो का पता नहीं चलता है और आराम करने, लाक्षणिक चिकित्सा करने से रक्तचाप सामान्य हो जाता है।
2. द्वितीयक रक्तचाप – इसमें शरीर के विभिन्न अंगों में विकृति को होने पर रक्तचाप में वृद्धि हो जाती है। इसको विकृति के आधार पर नीचे वर्गीकृत किया गया है।
- हृदय रोग जन्य- हृदय के विभिन्न संबंधित अंगों की विकृति जैसे हृदय में मांसपेशी, धमनी, सिरा आदि में कठोरता संकोचहीनता, संकरापन, लचीलेपन में कमी, आदि कारणों से समुचित रूप में रक्त संचरन न होकर रक्तचाप में वृद्धि हो जाती है।
- वृक्क रोगजन्य-इसमें वृक्क रोग, मूत्र संस्थान से संबंधित विकृति होने पर रक्तचाप बढ़ता है। इसमें मूत्र की जंाच में एल्बूमिन, पायोजेनिस बैक्टिरिया तथा रक्त में यूरिया की मात्रा में वृद्धि मिलती है।
- अन्तःश्रावी ग्रंथी जन्यरोग- विभिन्न हारमोन तथा अन्तःश्रावी ग्रंथी की विकृति से सामान्यतः प्राकृतिक रक्त संवहन के विसंगति होने से रक्तचाप होता है।
- आहार विहार जन्य रोग- इसकी उत्पत्ति तैलीय पदार्थों का सेवन, अल्कोहल, सिगरेट, तंबाकू आदि अधिक पीना, आराम तहत जिंदगी, परिश्रम का अभाव, शिफ्ट की ड्यूटी/गर्मीवाले स्थान में रहना, अनियमित दिनचर्या, मांसाहार, पित्त प्रकोपित करने वाले द्रव्यों के सेवन से रक्तचाप होता है।
- मानसिक विकृति जन्य – क्रोध, लोभ, भय, चिंता आदि कारणों से रक्त परिवहन की नियमितता तथा हृदय की कार्य प्रणाली के साथ शरीर के विभिन्न उतको एवं प्रमुख अंगों के कार्य की गतिविधियाँ प्रभावित होती है जिससे रक्तचाप में वृद्धि हो जाती है।
- औशधि जन्य- विभिन्न प्रकार की औषधियों जैसे एन्टीबायोटिक, स्टेराइड, अषोधित धात्वीय औषधियों जैसे पारा, ताम्र, स्वर्ण, सीसा के योग तथा विभिन्न जान्तव एवं कई वानस्पतिक द्रव्यों की अतिमात्रा तथा अनुचित प्रयोग से भी रक्तचाप में वृद्धि हो जाती है।
- गर्भावस्था जन्य- कुछ स्त्रियों में गर्भावस्था में रक्तचाप की शिकायत होती है जिसका कारक गर्भ के समय विजातीय पदार्थों की शरीर में अधिक उत्पत्ति तथा माँ एवं गर्भस्थ शिशु के पोषण का अधिक भार होने से रक्तचाप होता है, ऐसा माना जा सकता है।
लक्षणः
शिरःशूल (headach), जलन, शरीर में लाली, त्वचा में लाली, बिना श्रम के थकान, शरीर में वेदना, दुर्बलता, भ्रम, चक्कर, आँखों में भारीपन, पाचन विकार, अमलोद्गार, स्मृति ह्यस, पक्षाघात, अंगघात, शून्यता, आंखों के सामने अंधेरा छाना, वक्ष भाग में सूजन, पैरों में सूजन, हृदयशूल, मेदोवृद्धि, मधुमेह, अर्श, वृक्क विकार, अनिद्रा, बैचेनी, किसी भी काम में मन न लगना, व्यग्रता, स्वेदोवृद्धि आदि लक्षण मिलते हैं। इसी प्रकार का वर्णन चरक संहिता के चिकित्सा स्थान में भी मिलता है।
चिकित्साः
आयुर्वेद के चिकित्सा ग्रंथों में वातज, पितज, कफज, कृमिज आदि भेद से हृदय रोग का वर्णन मिलता है। जबकि आधुनिक चिकित्सा ग्रंथों में हृदय के अवयव विकृति या क्रिया विकृति के आधार पर विभिन्न प्रभेद से हृदय रोग का ज्ञान मिलता है। इस प्रभेद को वात पित कफ के गुणकर्म के अनुरूप तुलना करके अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि दोनों चिकित्सा पद्धति में वर्णित हृदय रोग के वर्णन में समानता है। इसी आधारभूत सिंद्धात को आश्रय लेकर हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों की चिकित्सा की जा सकती है और आशातीत सफलता प्राप्त कि जा सकते है, जिसके अंतर्गत प्रमुखतः प्रभाकर वटी, नागार्जुनाभ्र, इन औषधियों के साथ अर्जुनक्षीर एवं अर्जुन क्वाथ का प्रयोग किया जा सकता है।
1. प्रभाकर वटी- इसका वर्णन भैषज्य रत्नावली में मिलता है। इसमें स्वर्ण माक्षिक भस्म, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, वंशलोचन, शिलाजीत समान मात्रा में मिला रहता है। जिसमें अर्जुन की छाल के क्वाथ की भावना देकर 2-2 रत्ती (250-250 मि.ग्रा.) की गोली बना ली जाती है। इस प्रकार से बनी गोली का प्रयोग अर्जुन की छाल के क्वाथ के साथ 1-1 गोली सुबह शाम इस रोग में अतीव हितकर है। इसका प्रयोग हृदय की धड़कन, हृदय शूल, चक्कर, आंखें लाल दिखना, सारी चीजें घूमती हुई नजर आना एवं अनिद्रा जैसे लक्षण वाले उच्च रक्तभार के रोगियों में अधिक किया जाता है, जिससे रोग के लक्षणों को दूर करने में सफलता मिलती है।
2. नागार्जुनाभ्र- इसका वर्णन रस चिंतामणि नामक रस ग्रंथ में मिलता है। इसमें सहस्रपुटी अभ्रक भस्म का प्रमुख स्थान है जिसको अर्जुन छाल के क्वाथ से सात दिन तक भावित किया जाता है। फिर 1-1 रत्ती (125-125 मि.ग्रा.) की गोली बनाकर 1-2 गोली अर्जुन क्षीर या क्वाथ के साथ उपयोग किया जाता है। यह सर्वविदित है कि अभ्रक भस्म रसायन, हृदय रोग में हितकारी तथा त्रिदोष शामक है। इसी कारण यह द्रव्य अर्जुन छाल के क्वाथ से भावित होकर दुष्प्रभावशाली रूप से हृदय रोग के लिये विशेष उपयोगी बन जाता है। जब इसका प्रयोग प्रभाकर वटी के वर्णन के अंत में वर्णित हृदय रोग के लक्षण वाले रोगियों में किया जाता है तब आशातीत सफलता मिलती है।
3. अर्जुन– यह सर्वविदित हृदय रोगोपयोगी वनौषधि है। इसका आधुनिक चिकित्सा के द्वारा भी अधिक उपयोग किया जाता है। हमने सुलभता के दृष्टिकोण से अर्जुन छाल का प्रयोग चूर्ण, क्वाथ तथा क्षीर के साथ किया है। इसका प्रयोग स्वतंत्र औषधि के रूप में करने के साथ-साथ प्रभाकर वटी और नागार्जुनाभ्र के अनुपात द्रव्य के रूप में भी उपयोग किया है। इसके प्रयोग से लेखक को चिकित्सा कार्य में सफलता ही मिली है।
4. गोक्षुरादिचूर्ण एवं पुर्ननवाश्टक क्वाथ – जहॉ मूत्रल औषध प्रयोग से रक्तभार में कमी होकर लाभ होता है, वहा प्रयोग किया जाता है।
5. सर्पगंधा + गोक्षुर +अर्जुनछाल +पुश्करमूल बराबर मात्रा में लेकर कपड़छन चूर्ण तैयार कर एक-एक चम्मच प्रातः एवं सायं पानी के साथ सेवन करायें।
6. प्रभाकर वटी – 5 ग्राम। योगेन्द्र रस -ढाई ग्राम। प्रवाल पिश्टी – 10 ग्राम। इन तीनो को मिला कर 40 पुड़ियां बनाकर एक-एक पुड़ियां प्रातः एवं सायं शहद के साथ सेवन करायें।
7. हृदयार्णव रस- ताम्रभस्म से बना ये कल्प हृदय रोग जनित छाती के दर्द में बहुत असरकारक होता है।
8. मकरध्वज- हृदय का संपूर्ण आरोग्य सुधारने वाला ये कल्पसभी प्रकार के हृदय रोगों में असरदार होता है।
9. अजुर्नारिश्ट- हृदय की रक्तवाहिनियां खोलकर उसकी क्रियाशीलता बढ़ाने वाला ये पेय बहुत मशहूर है।
इन उपरोक्त औषधियों के अतिरिक्त सूतशेखर रस, प्रवाल पिष्ठी, प्रवाल भस्म, जहर मोहरा पिष्ठी, आंवले का चूर्ण, आमलकी रसायन, ओर आंवले के मुरब्बा का भी लाक्षणिक चिकित्सा हेतु वैद्यकीय सलाह से प्रयोग किया जा सकता है।
सर्दिया आते ही स्नेहन-स्वेदन का प्रयोग करना, व्यायाम का क्रमशः प्रयोग बढाना इस रोग से बचने के उपाय हैं।