क्या आप अपना जीवन बिना आहार के सोच सकते हैं? बिलकुल भी नहीं, है ना!! प्रातः जागरण से लेकर रात को सोने के समय तक, पूरे दिन में हम कुछ न कुछ खाते-पीते रहते हैं। दुनिया में दो प्रकार के व्यक्ति देखने को मिलते हैं, एक वह जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वह जो खाने के लिए ही जीते हैं। विश्व में malnutrition से होनेवाले रोगों से कई गुना ज्यादा रोग over eating से, और खान-पान के सही ना होने से होते हैं। आप कितना भी पौष्टिक आहार लें, पर अगर उस आहार का पाचन सही नहीं होता है तो आप के शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों को उस पौष्टिक आहार से कोई लाभ नहीं मिलेगा, यह निश्चित है। ज्यादातर रोग पाचन के ठीक ना होने से ही उत्पन्न होते हैं। पाचन ठीक ना होने से जठर में जो अपक्व रस पड़ा रहता है उसे ‘आम’ (अपक्व आहार रस) कहते हैं, और आम के कारण ही रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिए रोग का एक पर्याय ‘आमय’ है। यदि इस आम की अवस्था में भी आहार लिया जाता है तो, आंतों में उस अपक्व आहार-रस के कारण आमविष की उत्पत्ति होती है, जो भयंकर विष (food poison) के समान होता है। इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न न हो उस के लिए आयुर्वेद में खान-पान का सही तरीका क्या है, कब और कितनी मात्रा में, किस प्रकार का आहार खाना चाहिए, इन सब बातों पर बहुत ही गहन विचार किया गया है।
आहार का अर्थ है – ‘आह्रियते अन्ननलिकया यत्तदाहारः’।अन्ननलिका द्वारा जो कुछ भी लिया जाता है, वह सब आहार कहा जाता है। प्रतिदिन हमारे दैनिक कार्यों के लिये हमें उर्जा चाहिये, और उसके लिये योग्य मात्रा में आहार लेना आवश्यक भी है। तब आहार से व्याधि कैसे उत्पन्न होती है?
हमारा शरीर पंचभौतिक है, जिसके प्रतिनिधि स्वरूप वात, पित्त और कफ दोष है। रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र – यह सात धातु हमारे शरीर का आधार स्तम्भ है। जब तक यह त्रिदोष और सप्त धातु अपने प्रमाण में अर्थात् सम अवस्था में रहते हैं, तब तक स्वास्थ्य बना रहता है। जैसे ही इन में वैषम्य उत्पन्न होता है, किसी न किसी रूप में व्याधि की उत्पत्ति होती है इन दोष-धातु में वैषम्य उत्पन्न होने का एक प्रमुख कारण है हमारा आहार। सभी आहार द्रव्य पंचभौतिक होते हैं और हमारा शरीर भी पंचभौतिक है, अतः आहार के अनुरुप ही शरीर में त्रिदोष की स्थिति रहेगी। आहार से व्याधि उत्पन्न होने के कई कारण होते हैं। यहाँ उसको हम विस्तार से जानने का प्रयत्न करेंगे।
सामान्य वृद्धि कारणः जिस दोष के जो गुण है उसके समान गुण वाले आहार-द्रव्यों का नित्य सेवन करने से उस दोष की वृद्धि होगी। जैसे कि (1) कफ दोष के गुण – गुरु (जो पचने में ज्यादा समय लेता हो), शीत, स्थिर, स्निग्ध, मधुर और पिच्छिल (चिकना)। कोई व्यक्ति यदि ऐसे गुण वाले पदार्थों का ज्यादा सेवन करता है, जैसे कि मिठाई, केले, मक्खन, घी आदि, तो उसके शरीर में कफ दोष की वृद्धि होगी और कफजन्य व्याधियां उत्पन्न होगी, जैसे कि – निद्राधिक्य, शरीर में भारीपन, आलस्य, अपचन, मंदाग्नि, अतिस्थूलता, मुख में मीठापन रहना, नेत्रादि मलों का अधिक निकलना आदि।
(2) पित्त दोश के गुण – उष्णतीक्ष्ण, द्रव, अम्ल, सर और कटु (तीखा)। इन गुणों वाले आहार (all spicy and junk food) का अतिमात्रा में नित्य सेवन करने से पित्त दोष की वृद्धि होगी और पित्त-जन्य विकार उत्पन्न होंगे, जैसे कि – संपूर्ण शरीर में दाह, छाती में जलन, स्वेद का अधिक निकलना और स्वेद का दुर्गंधित होना, नीलिका (blackish patches on skin), bleeding disorders, jaundice, herpes, मुख, नेत्र, गुदा आदि का पक जाना, भूख-प्यास का अधिक लगना आदि। (3) वात दोष के गुण – रूक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, खर (rough), चंचल। इस प्रकार के गुण वाले आहार (जामुन, कच्ची मूली, आलुक, करेला, यव, मटर, चना, अरहर, मसूर) का अतिमात्रा में सेवन करने से वात दोष की वृद्धि होगी और वात-जन्य विकार उत्पन्न होंगे, जैसे कि – हाथ पैर की त्वचा का फट जाना, अरसज्ञता, शरीर में रुक्षता, त्वचा का वर्ण सांवला हो जाना, मुख का स्वाद कसैला होना, बहरापन, कर्ण-शूल, कटि-शूल,नेत्र-शूल,sciatica, severe pain in the calf muscles, pain in abdomen, depression, delirium;शरीर के किसी भी भाग में पीड़ा होना या जकड़ाहट होना – ये वात-दोष के मुख्य लक्षण हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि आहार-जन्य व्याधियों में शारीरिक के साथ ही मानसिक व्याधियों का भी समावेश होता है।
1. अतिमात्रा में रस सेवन: आयुर्वेद में ६ रस माने गये हैं – मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय। हमारे भोजन में इन सभी रसों का समावेश होना आवश्यक है, किसी एक रस का अतिसेवन करने से उस रस से संबन्धित विकार होते हैं। यथा –
- मधुर रस (sweet)- इस रस के अतिसेवन से मेद धातु की और कफ दोष की वृद्धि होती है और तद्जन्य विकार होते हैं, जैसे कि स्थूलता, अग्निमांद्य, प्रमेह, गलगंड(goiter) आदि।
- अम्ल रस (sour)- इस रस के अतिसेवन से शरीर में शैथिल्य होता है, भ्रम, कंडु (itching), पांडु, विसर्प, शोथ, विस्फोट(boil), ज्वर आदि होते हैं ।
- लवण रस (salty)- इस रस के अतिसेवन से वात-रक्त (gout), गंजापन, बाल सफेद होना, झुर्रियां पडना, कुष्ठ, विसर्प आदि होते हैं।
- कटु रस (pungent)- इस रस के अतिसेवन से प्यास अधिक लगना, शुक्र धातु एवं बल का क्षय, मूर्छा, कम्पवात, कमर-पीठ-पार्श्व में वेदना आदि होते हैं ।
- तिक्त रस (bitter)- इस रस के अतिसेवन से धातुओं का क्षय और वातव्याधियां उत्पन्न होती हैं।
- कशाय रस (astringent)- इस रस के अतिसेवन से विष्टम्भ, आध्मान (abdominal distention), हृदय में पीड़ा, कृषता, मल-मूत्र में रुकावट और पुंसत्व शक्ति का नाश होता है ।
2. मात्राजन्य विकार (Improper Quantity): “मात्राशी स्यात्। आहारमात्रा पुनः अग्निबलापेक्षिणी”। (च.सू.5/3) मात्रापूर्वक ही भोजन करना चाहिए, और मात्रा प्रत्येक व्यक्ति के जठराग्नि पर निर्भर होती है। ऋतुओं के अनुसार हमारी पाचन क्षमता भिन्न-भिन्न होती है, और इसी लिये आयुर्वेद में ऋतुचर्या का वर्णन किया गया है। व्यक्ति की वय, प्रकृति, ऋतु, अग्निबल (Digestion Capacity), आहार द्रव्यों के गुण (गुरु-पचने में भारी, लघु-पचने में हलका) आदि के आधार पर भोजन की मात्रा निश्चित करनी होती है। भोजन करते समय अपनी कुक्षि (digestion power) के चार भाग की कल्पना करते हुए, दो भाग अन्न-द्रव्य, एक भाग प्रवाही पदार्थ और शेष चौथा भाग वातादि की गति के लिये खाली छोड देना चाहिए। (अ.हृ.8/46) अर्थात् अपने स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये कभी भी भरपेट भोजन नहीं करना चाहिए। मात्राजन्य विकार दो प्रकार के होते हैं –
(1) अल्प मात्रा जन्य विकार: शरीर के बल, वर्ण और पुष्टि का क्षय, उदावर्त (पेट में गेस), आयु के लिए अहितकर, वीर्य का क्षय, शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों की दुर्बलता और अनेक प्रकार की वात व्याधियां उत्पन्न होती हैं।
(2) अति मात्रा जन्य विकार: त्रिदोष प्रकोपक, उदरशूल, ज्वर, उल्टी-दस्त, भ्रम, अधिक प्यास, प्रलाप, अरुचि, अपचन, आलस्य, गुरुताआदि।
मानसिक भावों का आहार पर असर: चिंता, भय, क्रोध, शोक, दुःख, अनिद्रा आदि के कारण आहार का समुचित पाचन न होने से अजीर्ण, अम्लपित्त, विबंध, दस्त, ब्लडप्रेशर आदि अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं।
अन्य कारण: (1) समशन – हितकर और अहितकर द्रव्यों को एकसाथ खाना (2) अध्यशन – भोजन के उपरांत फिर से कुछ खाना या नाश्ता करना (3) विषमाशन – बिना समय के और बिना योग्य मात्रा के भोजन करना। ये तीनों मृत्यु अथवा भयंकर व्याधि को उत्पन्न करने वाले होते हैं।
आयुर्वेद के आचार्यों का कहना है कि सभी रोगों का मूल कारण मंदाग्नि है, अतः व्यक्ति को अपनी जठराग्नि का विचार करते हुए सोच समझकर आहार लेना चाहिए। आईए, अब समझते हैं कि आहारजन्य व्याधियों से कैसे बचा जाए!
अष्टविध आहार विधि-विशेष आयतन: भोजन ग्रहण करते समय इन 8 पहलुओं पर ध्यान देना चहिए –
1) प्रकृति – आहार द्रव्यों के गुण को समझना, जैसे उडद पचने? में भारी है और मूंग पचने में हलका है। इसी प्रकार से घी-दूध शीतल है और तैल, मसाले उष्ण हैं।
2) करण – संस्कार: भोजन बनाते समय जो भी क्रिया करते हैं जिससे उन में गुण परिवर्तन होता है, वह सभी संस्कार हैंः जैसे कि पानी से धोना, उबालना, मंथन करना – दही स्वभाव से सूजन करनेवाला होता है, पर उसे घी के साथ मथ दिया जाय तो वह सूजन को दूर करने वाला होता है।
3) संयोग – दो या दो से अधिक आहार द्रव्यों को मिलाकर खाना। इस प्रकार संयोग से एक विषेश गुण उत्पन्न होता है, जैसे कि मधु, मछली और दूध एकसाथ खाने से वह कुष्ठ रोग का कारण बन सकता है।
4) राषि – मात्रा का विचार करना, जो हम देख चूके हैं।
5) देष (Habitat)– स्थानः आहार द्रव्य किस देश में उत्पन्न हुआ है, उसके अनुसार उस द्रव्य में भिन्न-भिन्न गुण होते हैं। जो व्यक्ति जिस देश का है उसके लिए उसी देश में उत्पन्न आहार द्रव्य (अन्न-औषधि ) अनुकूल रहता है। वर्तमान समय में जब दुनिया बहुत छोटी होती जा रही है तब इस पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
6) काल – स्वस्थ व्यक्ति को ऋतु अनुसार आहार लेना चाहिए। रोगी को रोग की अवस्था के अनुसार आहार लेना चाहिए ।
7) उपयोग संस्था – भोजन करने के नियम, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
8) उपयोक्ता – जो व्यक्ति आहार द्रव्यों का उपयोग करता है उसे उपयोक्ता कहते हैं ।
आहार विधि विधानः Regimen for the consumption of food:
– उश्ण (ताजा-गर्म) भोजन करना चाहिएः जिस से पाचन अच्छा होता है, भोजन स्वादिष्ट लगता है और वायु का अनुलोमन होता है। इससे स्वभाविक ही यह बात सिद्ध होती है कि फ्रीज में रखे हुए खाध्य पदार्थ का सेवन नहीं करना चाहिए। आवश्यकता हो उतना ही खाना पकाना चाहिए।
– स्निग्ध भोजन करना चाहिएः जो शरीर की पुश्टि करता है, शीघ्र पच जाता है, स्वादिष्ट लगता है, त्वचा के लिए हितकर है और इंद्रियों (ज्ञानेंद्रियों) को दृढ करता है। अतः हमारे भोजन में घी (गाय का), दुग्ध, दहीं, मक्खन, तैल आदि स्निग्ध द्रव्यों का समावेश होना चाहिए।
– मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिएः जिससे वह बिना कोई विकार उत्पन्न किये शीघ्र पच जाता है।
– अगला भोजन पच जाने के बाद ही दूसरा भोजन करना चाहिएः अजीर्ण में भोजन करने से वात-पित्त-कफ तीनों दोषों का प्रकोप होता है, और आमविष जैसी अनेक प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती हैं।
– परस्पर अविरुद्ध वीर्य वाले आहार करना चाहिएः जिससे विरुद्ध आहार से उत्पन्न होने वाले कुष्ठ, नपुंसकता, रक्तविकार, त्वक्विकार जैसे रोगों से बचा जाए ।
– इश्ट स्थान में इश्ट भोजन करना चाहिएः मन के अनुकूल स्थान पर और मनोनुकूल सामग्रियों के साथ भोजन करना चाहिए। भोजन का स्थान और सभी उपकरण स्वच्छ और पवित्र होने चाहिए। वर्तमान समय में हम कहीं भी और कैसी भी सामग्री (street food) खाते रहतें हैं! हम रोगों को आमंत्रण देते हैं!
– अतिषीघ्रता से भोजन नहीं करना चा